Saturday, July 23, 2011

ये ज़िन्दगी...



ये ज़िन्दगी
जो दिनों से मिनटों में
फिर लम्हों में फिसल रही है,
जो आज तुम्हारी 
नसों में, रगों में, दिलों में
मचल रही है;
तुम्हारी आवाज़ में गले से
निकल रही है,
फिर लफ़्ज़ों में ढल रही है
कभी शोर, कभी ग़ज़ल रही है..

ये ज़िन्दगी
आँखों में जो ख्वाब-सी पल रही है,
एक अरसे से जहां को 
छल रही है;
हाँ कुछ लोगों को खल रही है..

ये ज़िन्दगी
हिमालय की बर्फ-सी 
पिघल रही है;
कहीं आंसुओं की नमी में
जड़ों से गल रही है,
कभी-कभी
बच्चों-सी चंचल रही है..

ये ज़िन्दगी
अन्दर गहराइयों में
ज्वालामुखी-सी जल रही है,
कुछ नशे में
डगमगाकर, ठोकरे खाकर 
अब शायद संभल रही है..
चेहरे पे मुस्कान है मगर
ग़मों को निगल रही है..
खुद से पूछों
क्या सचमुच सफल रही है?

ये ज़िन्दगी
न जाने कितनी सदियों से 
यूं ही शक्लें 
बदल रही है;
कौन कहता है
तय रास्तों पर
चल रही है...